टूटकर अलग हुआ महाद्वीप का हिस्सा, विश्व के लिए बन सकता है खतरा।

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टूटकर अलग हुआ महाद्वीप का हिस्सा, विश्व के लिए बन सकता है खतरा। 

Part of a glacier broken in European continent, can pose a threat to the world.

समाज विकास संवाद!
नई दिल्ली।

टूटकर अलग हुआ महाद्वीप का हिस्सा, विश्व के लिए बन सकता है खतरा।

के साथकरीब एक सदी से इंसानों द्वारा पर्यावरण किए जा रहे छेड़छाड़ से उत्पन्न हुए

विश्व के लिए खतरा घातक साबित हो सकता है। इस एक सदी में विश्व की जनसंख्या बढ़ती

जा रही है।  इस बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ इंसानों की जरूरतें भी बढ़ती जा रही है,

जिसे पूरा करने के लिए नए-नए आविष्कार भी किए जा रहे हैं   और इसी के साथ

पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ कर पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ता जा रहा है।

यदि आप पर्यावरण के प्रति सोचते हैं, तो आपके लिए यह चिंता का विषय बन सकता है।

वैज्ञानिकों द्वारा मिली खबर के अनुसार अंटार्कटिका का एक बड़ा हिस्सा टूटकर अलग हो गया है।

आपको बता दें कि अंटार्कटिका का 98 फीसदी हिस्सा बर्फ सेढका हुआ है और जो हिस्सा टूटा है

वह करीब एक खरब टन का आइसबर्ग है।  जो हिस्सा टूटा है उस अकेले हिस्से में ही

अमेरिका का न्यूयॉर्क जैसे सात शहर समाहित हो सकते हैं।

साल 2011 से मई 2017 तक यह 50 मील और बढ़ गई थी। इस दरार के बढऩे की रफ्तार

3 फीट प्रतिदिन तक थी। अंटार्कटिक के पूर्वी तट पर यह दरार अब 111 मील लंबी हो चुकी थी।

वैज्ञानिक कई महीनों से इस हिमशैल के टूटने का पूर्वानुमान लगा रहे थे।

यह आइसबर्ग अब तक के दर्ज आंकड़ों में सबसे बड़ा है।

 

अंटार्कटिका के उत्तर-पूर्वी किनारे की लार्सन चट्टान का हिस्सा था।

पर्यावरण के लिहाज से चिंताजनक होने के अलावा यह दक्षिणी ध्रुव के आस-पास जहाजों के लिए भी

गंभीर खतरा बन सकता है।  अंटार्कटिका के उत्तर-पूर्वी किनारे की लार्सन चट्टान का हिस्सा था।

लार्सन सी बर्फ की चट्टान से 5800 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा अलग हो जाने से इसका

आकार 12 फीसदी से ज्यादा घट गया है और इसी के साथ अंटार्कटिक प्रायद्वीप का

परिदृश्य हमेशा के लिए बदल गया है।

ऐसा नहीं है कि खतरे की घंटी सिर्फ अंटार्कटिका से ही बजी हो।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनियाभर में ग्लेशियरों की पिघलने की रफ्तार काफी तेज हो गई है।

अंटार्कटिका में भी 1975 से 2012 के बीच बर्फ की मोटाई 65 फीसद घट चुकी है।

अब तक कहा जा रहा था कि हमारे ग्लेशियर धीमी मौत मर रहे हैं, लेकिन पिछले

कुछ सालों में पता चला है कि असल में यह रफ्तार काफी तेज है।  डराने वाले आंकड़े यह हैं

कि 1975 से 2012 के बीच आर्कटिक बर्फ की मोटाई 65 फीसद घटी है। 1979 के बाद

प्रत्येक दशक में आर्कटिक की बर्फ घटने की दर 2.8 फीसद रही है।

अब इस बर्फ की चट्टान के टूटने के बाद लार्सन कमजोर हो सकती है।

लार्सन-सी का टूटना तेजी से गर्म हो रही धरती के लिए एक और खतरे की घंटी साबित

हो सकती है। अंटार्कटिका से हमेशा हिमशैल अलग होते रहते हैं। ऐसे में महासागर में

जाने के इसके रास्ते पर निगरानी की खास जरूरत होगी। सालों से पश्चिमी अंटार्कटिक

हिम चट्टान में बढ़ती दरार को देख रहे शोधकर्ताओं का कहना है कि

यह घटना 10 जुलाई से लेकर 12 जुलाई के बीच हुई है।

 

ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगले कुछ सालों में दुनियाभर के मौसम में भयानक बदलाव। 

ग्लोबल वार्मिंग के कारण अगले कुछ सालों में दुनियाभर के मौसम में भयानक बदलाव

देखने को मिलेंगे। ध्रुवों और ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के बीच तापमान में अंतर के कारण पृथ्वी के

बड़े हिस्से में हवाएं चलती हैं। अगर तापमान ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र के मुकाबले तेजी से बढ़ेगा,

तो धरती के अप्रत्याशित स्थानों पर बेमौसम लू चलेगी और यह मानव जीवन के लिए ङ्क्षचता का

विषय है। बर्फ से ढकी मिट्टी की परत में बड़ी मात्रा में जैव पदार्थ मौजूद हैं। बर्फ के पिघलने से

यह पदार्थ गर्मी में जलकर कार्बनडाइ ऑक्साइड या मीथेन के रूप में वातावरण में घुल जाएंगे।

इससे ग्लोबल वार्मिंग और भी तेज होगी।

इसके घेरे में स्थित ग्रीनलैंड के बर्फ क्षेत्र में पृथ्वी का दस फीसद मीठा पानी है।

अगर वहां की बर्फ पिघलती है, तो समुद्र का स्तर इस सदी के अंत तक 74 सेमी से भी

अधिक बढ़ जाएगा, जो खतरनाक साबित हो सकता है। इससे मुंबई, चेन्नई, मेलबर्न, सिडनी,

केपटाउन, शांघाई, लंदन, लिस्बन, कराची, न्यूयार्क, रियो-डि जनेरियो जैसे दुनिया के

तमाम खूबसूरत और समुद्र के किनारे बसे शहरों को खतरा पैदा हो सकता है।

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लार्सन चट्टान का हिस्सा था। 

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